गजल- एक गुफ़्तगू मेरी मनतरंगों से...


    लेखक - कर्मवीर सिरोवा 
हयात ने तबियत से कुछ यूं फ़रमाया है, 
ज्ञान मंदिर में आकर जीवन ने जीवन को गले लगाया है।


सोहबत में तेरी ए मंदिर, ये धन कमाया है,
आकर तेरे परिसर मे बच्चो संग खुद को आजमाया है।
घर से निकलकर ज्ञान मंदिर में परिवार को पाया है,
गुड मॉर्निंग, नमस्कार के साथ आशीर्वाद भी झोली में आया हैं।
अध्यापन की कसौटी पर मेहनत को शिखर दिखाया हैं,
शिक्षक का पेशा क्या होता है? 
मैंने तो बच्चों के माथे की लकीरों में मंजिल को सजाया हैं।
पढ़ते-पढ़ाते में इतना पढ़ बैठा, हुनर ने मेरे इस मंदिर का घण्टा बजाया हैं,
सरगम के सातों स्वर माँ की वाणी से निकले, जब हर पीरियड मैंने पढ़ाया हैं।


जब भी लगा कि थकावट से  दिमाग मेरा हकलाया हैं,
बच्चों की मोहक मुस्कराहटों ने ताज़गी का पान कराया हैं।


इस मंदिर में परिवार की कमी जहाँ महसूस हुई, स्टाफ आया हैं,
यहाँ कितना अपनापन मिला , ट्रेनिंग में वो कहाँ पाया है।


बच्चों, छू लो आसमाँ, ऊंची उड़ान का सपना दिखाया है,
जो थी ज्ञान की पोटली, उसका हर रंग बच्चों को दिखाया हैं।


कैसे करते है उपस्थिति रजिस्टर में, ये भी स्टाफ ने सिखाया है।
तन की मिट्टी को उम्र के सांचे में तपाकर मैंने भी परिपक्वता का जलवा दिखाया हैं।


बन जाऊं मैं सब बच्चों के हाथों की रेखा, इस तसब्बुर ने  अब झांका हैं,
ये कर्मवीर डाँक्टर बनादे, ये कर्मवीर बना दे कलक्टर, 
बच्चों के नन्हें हाथों की जड़ों में कर्मवीर ने अपना पसीना बहाया हैं...