ढंग की बात-मजदूर से ज्यादा आत्मनिर्भर कौन? 

संपादकीय -एडवोकेट हरेश पंवार



आत्मविश्वास के बल पर कोसों दूर नंगे पांव सड़कों को नापते इन मजदूरों की विवशता को सुने  कौन ? सुनने वालों ने अपने कान में बहरूपिया राग अलापने वाली लीड लगा रखी है? मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।
देश के भौतिकवादी विकास के तमाम संसाधनों को ठेंगा दिखाते हुए और अपने मजबूत पांवों से विकसित राष्ट्र की सड़कों को नापते इन मजदूरों की तस्वीर देखिए। इनकी पांवों की घसी हुई चपले और फटी बिवाईयों का दर्द उन्हें मन की बात सुनने ही नहीं देता। जनसेवक जी अब तो कोई ढंग की बात कह दो। बहुत दिन हो गए हैं सड़कों पर लंबी कतारों में चलते हुए। कभी जनधन खाता खुलवाने के लिए बैंकों में लाइनों में लगे, फिर नोटबंदी में नोट बदलवाने के लिए खूब चक्कर लगाए। कई बार  भारत बंद के नाम पर जातिगत सामाजिक संगठनों को सड़कों पर आने को विवश किया।, कोरोना के कहर में पिछले 50 दिन से अधिक समय से  मुंह पर मास्क रूपी ताला लगाकर जनता घरों में बैठी है। बोलने वाला कोई नहीं है। ऐसे संवेदनशील स्थिति में कौन बोले? आपने आपके लिए पागलपन का सर्टिफिकेट और देशद्रोही की डिग्री कौन ले? बोलने के संदर्भ में मुझे एक कहानी याद आ रही है। हमारे एक गुरुजी आदर्श बातें व नैतिकता के पाठ पढ़ाया करते थे । वे अमूमन विद्यार्थियों को नैतिक आचरण की शिक्षा दिया करते थे। एक बार वह सब्जी मंडी में सब्जी लाने के लिए गए हुए थे। बड़े सिद्धांत और आदर्श विचारों के थे गुरुजी। किसी व्यक्ति ने जानबूझकर  उन्हें धक्का मार दिया। गुरुजी अपने आप में बाल-बाल बचते हुए संभले तो उन्होंने प्रतिउत्तर में बोला की दिखता नहीं क्या? धक्का देने वाले उदंडी प्रवृत्ति के व्यक्ति ने कहा की है ये पागल कौन है? गुरु जी शांत खड़े थे हर कोई होने पागल की संज्ञा से विभूषित किए जा रहा था।  गुरुजी स्तब्ध भाव से यह सब दृश्य देख रहे थे। आने वाला हर व्यक्ति उन्हें पागल करार दिया जा रहा था। और देखते ही देखते गुरुजी को पागलखाने में बंद करवा दिया । नैतिकता की बात करना और सदाचरण की बात करना उन पर इतना दूष्प्रभाव डाला कि लोगों ने उन्हें पागल की संज्ञा से विभूषित कर दिया। उनके एक शिष्य जो डॉक्टर थे। और मानसिक रोगी अस्पताल में सेवारत थे। जब गुरुजी के पास गए और उन्होंने इस संदर्भ में पूछा तब उनकी कोई लक्षण पागलपन की दिखाई नहीं दे रहे थे। डॉक्टर शिष्य ने मेडिटेशन थेरेपी से कुछ जानने के इंटेंशन से कहा कि गुरु जी कुछ मन की बात कहो तब गुरुजी जलाते हुए कहा कि मन की बात नहीं तूम तो कुछ ढंग की बात सुनों। उन्होंने सारा दृष्टांत सुना डाला। उनके सिद्धांतिक विचारों को लोगों ने पागल करार दिया तब गुरु जी के शिष्य डॉक्टर पूछा कि तो ऐसा क्या हुआ उक्त सारा कथन का विवरण बताते हुए तब उन्होंने कहा कि अब दुनिया में भीड़तंत्र है। लोकतंत्र नहीं? जहां भीड़ चलती है वही सब स्वीकार कर ली जाती है। कुछ ऐसा ही आजकल भी हो रहा है। क्या सही है। क्या गलत है ।कोई मूल्यांकन करने की मस्कत नहीं करता है। जैसा जैसा आदेश मिल जाता है। वैसे वैसे पालन हो रहा है। उसके पीछे छुपे रहस्य और लॉजिक पर कोई तर्क करने की हिम्मत नहीं रख पा रहा। क्योंकि हर व्यक्ति उस गुरुजी की तरह से अपने आपको पागल खाने में भर्ती होने के लिए राजी नहीं हो रहा है। और आज तो देश में हर जिले व तालुका तथा राज्य की सीमाओं पर पागलखाने खोले हुए हैं। यहां पर तनिक भी तार्किक बात की तो उसे कम से कम 14 दिन तो क्वॉरेंटाइन का प्रयोग करना ही होगा? चलते चलते एक बात और कह दूं! हमारे मुखिया जी बंद के मास्टर स्टॉक बादशाह है। लेकिन बंद के मास्टर स्टॉक दृश्य से ये सब उभ चुके हैं। क्योंकि मजदूर के पेट की आग मर्ज बनकरू बगावत करने को मजबूर हैं। जो देश के मजदूर से ज्यादा आत्मनिर्भर किसे माना जा सकता है।  विकास के तमाम वादे इनके पांव के छाले से टपकते नासूर पर न्योछावर होते हैं।


आज इतना ही बाकी कल।