भीम प्रज्ञा संपादकीय- सुलगती दिल्ली और हुक्मरानों की क़ातिल चुप्पी। 


संपादक एडवोकट हरेश पंवार 


शा का साम्राज्यवादी घोड़ा जैसे ही  दिल्ली की ओर कूंच किया तो, केजरीवाल की झाड़ू से दिल्ली की जनता ने साहस दिखाकर घोड़े की लगाम क्या खींच दी। उफ़ दिल्ली में मानो उबाल ही आ गया, लेकिन नशा को यह बात बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हुई।  नशा यानी 'न' से नरेंद्र मोदी और 'शा' से अमित शाह का युग्म तिलमिला उठा। आखिर नशा से चूर भाजपा सरकार पलक झपकते ही अपना वायदा 'सबका साथ, सबका विकास' भूल कर आपा खोकर नया नारा देते हुए 'देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को !'  वायरल मैसेज से सुलगती दिल्ली के मंजर को तो आपने देखा है। धधकते अंगारों की लपटों में भला अपनों को नफरत की आग में सुलगते हुए देखकर यदि कोई बोले तो गुनाह क्या है ? यदि मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है‌। भक्तों को जब दिल्ली की हार बर्दाश्त नहीं हुई, गुस्से में आग बबूला होकर क्या दिल्ली ही जला दोगे? लगता है सुलगती हुई दिल्ली और हुक्मरानों की क़ातिल चुप्पी संभवतः शाहीन बाग को गोधरा कांड की भांति भस्म बना देने वाली साजिशें छूपी हो। जनता का अमन-चैन, सुख छीना जा रहा है। लोग दहशत में जी रहे हैं । इस हार के बाद दहशत का माहौल  उत्पन्न करके लोगों को भय के साए में जीने को मजबूर किया जा रहा है ? जनता के सवालों से घिरी सरकार निरुत्तर हो चली है। जुमलेबाजी का यह पतंग और अधिक उड़ान नहीं भर सकता। अपने मंजे की डोर समेटते हुए पीएम मोदी  सोशल मीडिया से संन्यास ले रहे हैं। जी हां फिर लेंगे  भी क्यों नहीं ? जब वे आर्थिक मंदी व मुद्रास्फीति के गिरते ग्राफ और देश के आंतरिक कलह की स्थिति से निपटाने के लिए उनके पास कोई तार्किक जवाब भी नहीं रहा? जनता का अपना मंच सोशल मीडिया के जरिए सवाल तो पूछेंगे? क्योंकि मीडिया मैनेजमेंट के जरिए लोकतंत्र का कथित चतुर्थ स्तंभ जब गोदी मीडिया हो चला है। मीडिया की सच्चाई के प्रति चुप्पी और ध्यान भटकाने वाले मुद्दों पर कलम व कैमरे का फोकस पटाक्षेप क्यों है ? इस संदर्भ में मैं नहीं बोलूंगा। क्योंकि मीडिया की क्या मजबूरी है ? क्या जी हुजूरी है ? परंतु  नशा से चूर सत्तारूढ़ हुक्मरानों  भले ही नशा के मदहोश में जनता की आवाज  मत सुनो। जिस दिन अपनी तंद्रा भंग कर मीडिया जनता के पक्ष में राग अलापेगा। उस दिन नशा चूर चूर होकर दिल्ली का दर्द महसूस कर पाएगा।
 उत्तर-पूर्वी दिल्ली हिंदुत्ववादी नेताओं द्वारा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के विरोधियों पर हमला करने और उन्हें डराने के लिए इकट्ठा किए गए हथियारबंद गुंडों के कब्जे में दिल्ली व्यथित हो उठी। इन गिरोहों और इनके नेताओं का चरित्र ऐसा था, कि इस हिंसा ने जल्दी ही किसी ‘राजनीतिक मकसद’ का दिखावा भी त्याग दिया और यह मुसलमानों के खिलाफ एक नंगे सांप्रदायिक बलवे में तब्दील हो गयी।


केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार- जिसके जिम्मे राष्ट्रीय राजधानी की कानून और व्यवस्था है- की नाक के नीचे मची अंधेरगर्दी और अराजकता में एक पुलिसकर्मी सहित 35 से अधिक लोगों की जान चली गई है और सैकड़ों लोग जख्मी हुए हैं.


इस सुनियोजित बलवे में आम कामगार लोगों- जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं- को अपनी जान गंवानी पड़ी है. इस बात में कोई शक नहीं हो सकता है कि रविवार को भाजपा नेता कपिल मिश्रा द्वारा सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को दिए गए रास्ता खाली करने या अंजाम भुगतने के अल्टीमेटम ने चिंगारी भड़काने का काम किया।
लेकिन इसके साथ ही कहीं गहरे सांस्थानिक और राजनीतिक कारक भी हैं, जिन्होंने दिल्ली को इस गर्त में धकेलने में अपनी भूमिका निभाई है. पहला और सबको नजर आने वाला कारण है दिल्ली पुलिस का पक्षपातपूर्ण रवैया, जिसके पीछे काफी हद तक केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा के समर्थन और प्रोत्साहन का हाथ है.
विश्वविद्यालय परिसरों से लेकर सड़कों तक भाजपा के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली हिंसक भीड़ के सामने मूकदर्शक बन कर खड़े रहना और उसे अपनी मनमानी करने देना, दिल्ली पुलिस की आदत बन गयी है.
आम नागरिक, खासकर मुसलमान- जो नागरिकता के सवाल के इर्द-गिर्द सत्ताधारी पार्टी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीतिक का मुख्य निशाना हैं- कानून के ऐसे पक्षपातपूर्ण रखवालों से किसी राहत की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.


दिल्ली में हिंसा की हालिया घटनाओं में भी जोखिमग्रस्त लोगों की रक्षा करने की जगह पुलिस को मुसलमानों पर हमला करने में हिंदुत्ववादी गिरोहों का पक्ष लेते देखा जा सकता था.


यह तथ्य कि पुलिस हिंसा के शिकार लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने के लिए भी कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद तैयार हुई, एक डरावनी कहानी कहता है. पुलिस जिस तरह से किसी दंडात्मक कार्रवाई का खौफ खाए बिना अपनी ड्यूटी से कतरा रही है, उसने एक ऐसी स्थिति को जन्म दिया है, जिसे किसी भी सभ्य देश के लिए चिंताजनक कहा जा सकता है.


बीती कुछ रातों से टेलीविजन के परदे पर आने वाली तस्वीरों और विभिन्न संस्थानों के पत्रकारों द्वारा हिंसक गिरोहों के हमलों का सामना करते हुए भी की गई रिपोर्टिंग ने 1984- आखिरी बार जब दिल्ली ऐसे संगठित सांप्रदायिक हिंसा की जद में आयी थी, – और 2002, जब नरेंद्र मोदी के शासन में गुजरात राज्य कई हफ्तों तक जलता रहा था, की भयावह स्मृतियों को फिर से ताजा कर दिया है.
दूसरी बात, इस पूरे दौरान भाजपा और संघ परिवार के नेताओं की भूमिका निंदनीय रही है. कपिल मिश्रा के अलावा पार्टी के विधायकों और नेताओं ने या तो खुलेआम मुस्लिम विरोधी घृणा को भड़काने का काम किया है या सीएए विरोधी प्रदर्शनों- जो पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहे हैं- को देशद्रोही करार देकर उन्हें बदनाम करने में मदद की है.


हालांकि, इस दौरान अमित शाह परिदृश्य से गायब रहे, लेकिन अब जूनियर गृहमंत्री ने मीडिया पर शिकंजा कसने की कोशिश शुरू कर दी है और उन्होंने उन न्यूज प्लेटफॉर्म पर कार्रवाई करने की मांग की है, जिनके द्वारा की गई हिंसा की रिपोर्टिंग सरकार के लिए शर्मिंदगी का सबब साबित हुई हैं.


दुख की बात है कि पिछले महीने दिल्ली में भाजपा के खिलाफ प्रचंड जीत हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) भी इस इम्तिहान की घड़ी में बुरी तरह से नाकाम साबित हुई.


ठीक है कि कानून-व्यवस्था राज्य सरकार के हाथ में नहीं है, लेकिन हिंसाग्रस्त इलाकों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने की जगह आप के नेता गायब नजर आए. होना यह चाहिए था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने विधायकों को हिंसा प्रभावित इलाकों में भेजते जहां लोग निराश होकर मदद की गुहार कर रहे थे.


मनीष सिसोदिया के साथ महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर श्रद्धांजलि देती हुई मुख्यमंत्री की तस्वीर ने जख्म पर और नमक छिड़कने का काम किया. जब दिल्ली जल रही थी, तब अपनी तरफ से पहल करने की जगह आप ने परदे के पीछे छिप जाने को मुनासिब समझा.


फिर भी आम आदमी पार्टी का पीठ दिखाकर भागना भाजपा की सीधी भूमिका के सामने में दब जाता है.


जिस समय दिल्ली जल रही थी, उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आवभगत करने में व्यस्त प्रधानमंत्री को ‘शांति और सौहार्द’ के लिए ट्वीट करने में बुधवार तक का समय लग गया. दिल्ली और उनके अपने इतिहास को देखते हुए मोदी की चुप्पी अपनी कहानी खुद कहती है.