मिट्टी से सोना बनाने वाले कारिगर भूख से त्रसद?

संपादकीय- एडवोकेट हरेश पंवार


मिट्टी से सोना बनाने वाले कारिगर भूख से त्रसद?


कोरोना वायरस के संक्रमण की श्रंखला को तोड़ने के लिए जहां दुनिया ने लोक डाउन को ही एकमात्र उपाय माना है। भारत जैसे जनसंख्या घनत्व वाले देश के लिए इससे बेहतर कोई उपाय भी नहीं हो सकता है। जब दुनिया के साधन संपन्न राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों ने ऊपर हाथ करते हुए इस नोबेल महामारी के संक्रमण के सामने घुटने टेक दिए हैं। वैसे ही भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में  चिकित्सा व्यवस्था भगवान भरोसे चल रही है।  जिसकी डांवाडोल स्थिति में सुधार की कवायद जरूरी है। इधर भले ही भारत सरकार अपनी लापरवाही पर पर्दा डाले परंतु खामियाजा आमजन को भुगतना पड़ रहा है। लेकिन जनता ईमानदारी के साथ राष्ट्र की इस आपदा के समय एकजुट दिखाई दे रही है। जनता की जागरूकता व सहयोगी अवधारणा के बदौलत देश को बड़ी क्षति होने से बचाया भी जा सकेगा। यह जरूर है कि कुछ लालच को छोड़कर सही  समय पर अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को चाक-चौबंद कर देते तो आमजन के लिए होम आइसोलेशन की जरूरत ही नहीं पड़ती। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था भी इतनी भयंकर स्थिति में चौपट नहीं होती। चलो देर आए दुरुस्त सही। अब भारत में चल रहे लोक डाउन के दौरान सब लोग पब्लिक डिस्टेंस को बनाए  हुए हैं। आम आदमी होम आइसोलेशन की पालना कर रहा हैं। और करना भी चाहिए। सभी लोग राष्ट्रीय विपदा में सहयोग कर रहे है। लेकिन इस दौरान सड़कों पर पैदल चलते मजदूर वर्ग के पलायन को देखकर बहुत बड़ी चिंता की लकीरें भी दिखाई दे रही है। मजदूर पलायन का आखिर जिम्मेदार कौन है ?
        आजकल टीवी चैनलों पर रामायण के एपिसोड्स को फिर से दिखाए जाने की कवायद शुरू हुई है। इसलिए कथन याद आ गया। रामायण का एक ऐसा दृश्य जिसमें आदर्श महिला पात्र सीता मां को गर्भवती काल में घर से बाहर निकालने की दर्द भरी दास्तां को अक्सर दिखाया तो नहीं जाता। परन्तु जिज्ञासावश समीक्षात्मक रूप से दर्शकों ने कई बार मर्यादा पुरुषोत्तम राम को कोसा जरूर है। लेकिन इससे भी शर्मनाक घटना कोविड-19 त्रासदी के दौरान मिट्टी से सोना बनाने वाले कारीगर को भूखा प्यासा व खाली जेब, ईंट भट्टे व कारखानों से निकाल दिया गया है। इससे बड़ी शर्म की बात  हो भी क्या सकती है ?  क्या गरीब की इस दर्द भरी दास्तां को सुनने वाला कोई  है? सरकार के रसूखदारों को केवल कागजों में आंकड़े चाहिए। 
लोक डाउन के एक सप्ताह से अधिक समय व्यतीत होने के बावजूद भी सरकारें  महज आंकड़ों के जोड़-तोड़ में व्यस्त है। महज घोषणाओं की औपचारिकता के अलावा मजदूर के हलक तक निवाले का ठीक से प्रबंध भी नहीं हो पाया है। इसलिए जरूर मजदूर के धैर्य ने जवाब दे दिया है। मजदूर  सड़कों पर कोसों दूर पैदल चलते हुए पलायन कर रहे हैं। मैं फिर कह रहा हूं आखिर मजदूर पलायन  का जिम्मेवार कौन है? यहां मैं बोलूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।
धरती के सीने को चीरकर अन उत्पन्न करने वाला अन्नदाता किसान और मिट्टी के लोथड़े को रोंदकर ईंट बनाने वाला भट्टा मजदूर यानि मिट्टी से सोना बनाने वाले कारीगर आज कोविड-19 त्रासदी के कारण भूख से परेशान है। उसका जनजीवन तहस-नहस हो चला है। लोक डाउन के चलते उसकी दिहाड़ी मजदूर का काम भी बंद हो गया है। रोग की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने अपनी दीर्घ दृष्टि सोच रखते हुए मन की बात में तीन महीने के राशन प्रबंधन फार्मूले की तैयारी हेतु कई घोषणाएं कर डाली। इस दौरान ईंट भट्टा मालिको ने मजदूरों को घर जाने के कई प्रेरित करते हुए उन्हें झुग्गी झोपड़ियों से बेदखल कर दिया। भावुक व निठल्ला मजदूर  ने जोखिम उठाकर मजबूरन अपने अपने घरों के लिए हर परिस्थिति में जाने का इरादा बना लिया और मजदूर सड़कों पर पैदल चलते हुए देश के विभिन्न कोणों से दिखाई दिए। पलायन काफिले में मजदूरों के सिर पर चिथड़ो का बोझ और महिलाओं की गोद में नन्हे बच्चों का भार बगैर साधन कोसों दूर पैदल पलायन करते हुए देखे गए। की जगह लॉक डाउन के उल्लंघन का दृश्य भी देखा गया। मजदूरों की इन दर्द भरी दास्तां की तस्वीरों ने एक बार फिर से सन 47 के भारत पाक बंटवारे के घाव को कुरेदते हुए पुनः हरा कर दिया। हमारा यक्ष सवाल यह है  कि इन मजदूरों के पलायन को रोकने के लिए ईट भट्टा मालिकों व लेबर हुमन रिसोर्स का काम करने वाले ठेकेदारों तथा कंपनी मालिक को पाबंद करते।  इन मजदूरों के दैनिक जनजीवन में आई अव्यवस्थाओं का  युक्ति युक्त निदान करते तो निश्चित ही रूप से कोरोना वायरस संक्रमण की श्रंखला को तोड़ने के लिए लगाए गए लोक डाउन कि अवश्य पालना होती। आज मिट्टी से सोना बनाने वाला मजदूर भूख प्यास से  हताश व निराश होकर बेखबर नहीं होता । वह चोरी छुपे रास्तों में सजा नहीं भुगतता। देश में इन मजदूरों की मजबूरी कोई नहीं समझता। मिट्टी को सोने के भाव बेचने वालों! जरा मिट्टी के इन पुतलो पर तुम्हें तरस नहीं आई! जब तक इनसे मिट्टी के लोथड़े से सोना बनवाते रहे। तब तक इनका खून चूसते रहे और महज इन पर आपत्ति आई तो अपनी ओछी मानसिकता का परिचय देते हुए। इन्हें ईट भट्टों से टरका दिया। शर्म आनी चाहिए । देश की इस आपत्ति काल में कोरोना वायरस के त्रासदी में इनकी जरा मदद करते अच्छा लगता। आप में से कुछ लोग मुझे कहोगे कि हमने सरकार के राहत कोष में जमा करा दिए लेकिन वहां तो अधिकारियों ने आपको नियमों का डंडा दिखाकर रो धोकर कुछ डोनेशन करवा लिया। लेकिन क्या आपने इन बेचारों की  मदद की ?  क्योंकि इस समय उधर उनके बच्चे चिंता में हैं। इधर मजदूर दुविधा में है। देश में कोविड-19 वायरस हवाई सफर से आया है और राज्य सीमाओं पर स्कैनिंग  मजदूरों की हो रही है। इसलिए मैं तो यही कहूंगा कि-
 "दोष किसी का नहीं दोस्तों केवल दोष हमारा है। 
हम आंखों वाले होकर भी अंधे हो जाते हैं। 
घाव पैरों में है, और मलहम हाथों पर मलते हैं।"