भीम प्रज्ञा सर्च रिपोर्ट दिलीप शर्मा श्रीमाधोपुर।
कोरोना वायरस से जहां दुनिया डर हुई है। वहां स्वच्छकर्मी सीधी चुनौती दे रहे हैं। समाज का एक बहुत बड़ा तबका जहां गंदगी फैलाते का काम करता है। वे मन चाही जगह कुछ भी बिखरते रहे हैं।, क्या फर्क पड़ता है? कभी आपने सोचा! पो फटते ही इस गंदगी को साफ करने वाले स्वच्छकर्मी तबके के बारे में कभी सोचा? अब घरों में निठल्ले बैठे लोग अपनी गंदगी फैलाने से बाज नहीं आ रहे हैं। जहां वायरस का कहर है। वे अपनी आदतों में बिल्कुल सुधार नहीं कर पा रहे हैं। फिर सोचो कोरोना के संकट में यह तबका कर्तव्य का पालन करता है। उन हॉस्पिटलों में जहां कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए आइसोलेशन वार्ड बनाए गए हैं। जहां संक्रमित रोगी के परिचितों के हाथ बढ़ने से रुक जाते हैं। पांव ठिठूर जाते हैं। अटेंडेंट बनने की तो दूर की बात।दवा की पर्ची पकड़ते ही रूह कांप उठते हैं। वहां इस गंदगी को साफ करने में जुटे तमाम सफाई कर्मियों के बारे में आपका क्या ख्याल है ?
हमारा तो भीम प्रज्ञा मीडिया हेल्पलाइन के जरिए उन्हें ह्रदय से सेल्यूट !
आज सुबह मेरी मुलाकात हमारी में नगरपालिका की महिला स्वच्छताकर्मी से हुई। पहले मुझे लगा यह राजकीय कर्मचारी है। पर मालुम हुआ कि वह अस्थाई कर्मचारी, जो पांच हजार रु में यह काम करती है। बात आगे बढी तो मालुम हुआ कि मास्क लगाने की आदत नहीं, इसलिए मास्क नहीं लगाती है। पति शराबी है, दो बच्चे पढ़ते है, पर दो बच्चों ने उच्च प्राथमिक स्तर तक भी पढाई नहीं कर पायें.. इतने मैने पूछा कि कैरोना संकट में भोजन राशन की समस्या है क्या.. जबाब मिलता , समस्या तो है, पर हम बीपीएल है ! हमें राशन के गेंहू मिल गये। एक बात ओर कहा कि मेरी सासु मां ने कहा कि हम तो काम चला लेंगे.. हमारे बिरादरी के एक विकलांग परिवार है। उसकी मदद करें.. मैं नतमस्तक हो गया। हमारी ये वार्तालाप सामान्य लगती होगी। पर यह सामन्य चर्चा नहीं। हजारों वर्ष की सामाजिक परम्परा के पृष्ठभूमि के कारण यह तबका चाह कर आगे नहीं बढ़ पा रहा। हजारों स्वच्छताकर्मी जिन्हें आज कल स्वच्छता सैनानी का नाम दिया जाता। जिन्हें युद्ध के मैदान में तार दिया जाता है। वे गटर की सफाई में अपनी जान धो बैठते है। कोई मामला नहीं बनता है, कोई चिता आक्रोश कभी नहीं उठता है। आर्थिक व शैक्षणिक विकास आज भी नहीं हो पा रहा है। शराब हर नौजवान को शारीरिक और मानसिक रुप से कमजोर कर रही है। घर परिवार का सारा बोझ महिला के उपर आता है। बच्चे पढाई छोड़ कर मजदूरी करते है, वे भी गुटखा व जर्दा की आदत के साथ नशा की आदत से प्रेरित हो रहे है। यह कब तक चलेग.. इस अवसर पर एक बार अपने घर परिवार व मोहल्ले या नगर में सफाई करने वाले तबकों की समस्याओं को जाने, हमारे सारी भौतिक प्रगति व विकास का ढांचा व्यर्थ है। जब तक सफाईकर्मी जो हमें स्वच्छ वातावरण देने वाले विकास से दूर होगे, तब तक राष्ट्र की प्रगति ठीक नहीं कही जा सकती। क्योंकि विकास का पिछड़ा एवं अंतिम पायदान इन्हीं के मोहल्ले से होकर गुजरता है। भूख कोई समस्या नहीं है, समस्या सम्मान की, समस्या अशिक्षा की, समस्या असमानता की दंश की।इस समस्या का हल कौन करेगा? यह सवाल सरकार से भी है? समाज से भी ? सवाल उन से भी जो दलित आंदोलन के चेहरे है, उनसे जिनके घर परिवार की गंदगी हजारों साल से केवल जाति विशेष में जन्म लेने के कारण उठाने को मजबूर है। मुझे पता यह प्रश्न निरुत्तर ही रहेंगे। क्योंकि ऐसे मुद्दों पर चिंतन करने की आदत नहीं है।